सातवाँ सूक्त

ऋ. 5.68

 

महान् शक्तिके अधिपति

 

    [ मित्र और वरुण सत्यकी महान् क्षात्रशक्तिको धारण किये हुए हैं, अतः वे हमें उस सत्यकी विशालता तक ले जाते हैं । उसी शक्तिसे वे सम्राट के समान सबपर शासन करते हैं । वे सत्यकी निर्मलताओंसे संपन्न हैं और उनकी शक्तियां सब देवोमें प्रकट होती हैं । इसलिए मित्र और वरुणको इन देवोंमें अपनी शक्ति स्थापित करनी चाहिये ताकि मानव परम आनन्दको और द्यावापृथिवीमें निहित सत्यकी संपदाको अधिकृत कर सके । वे सत्यके द्वारा सत्यको प्राप्त करते हैं; क्योंकि वे सत्यके उस प्रेरणापूर्ण विवेकको रखते हैं जो ज्ञान तक सीधा जाता है । इसलिये अज्ञानके अनिष्टोंमें गिरे बिना वे दिव्य भावसे वर्धित होते हैं । उस शक्तिशाली प्रेरणाके अधिपति होते हुए वे मर्त्यपर ज्योतिर्मय वर्षाके रूपमें द्युलोकोंको उतारते हैं और विशालताको अपने एक गृहके रूपमें अधिकृत कर लेते हैं । ]

प्र वो मित्राय गायत वरुणाय विपा गिरा ।

महिक्षत्रावृतं बृहत् ।।

 

(व:) तुम सब (मित्राय वरुणाय) मित्र और वश्णके प्रति (गिरा) उस वाणीसे (प्र गायत) स्तुतिगीत गाओ जो (विपा) प्रकाश देती है; क्योंकि (महिक्षत्रौ) वे उस महान् शक्तिसे संपन्न है और (ऋतं बृहत्) सत्य और बृहत् उनका ही है ।

सम्राजा या घृतयोनी मित्रश्चोभा वरुणश्च ।

देवा देवेषु प्रशस्ता ।।

 

(उभा) वे, हां वे दोनों, (मित्र: च वरुण: च) मित्र और वरुण (सम्राजा) सर्वशासक हैं, (घृतयोनी) निर्मलताके गृह हैं । वे (देवा) ऐसे देव हैं (या) जो (देवेषु प्रशस्ता) देवोंके अन्दर स्तुतिवचन द्रारा प्रकट किये गए हैं ।

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महान् शक्तिके अधिपति

 

ता नः शक्तं पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य ।

महि वां क्षत्रं देवेषु ।।

 

इसलिये (ता) ऐसे तुम दोनों (नः) हमें (दिव्यस्य पार्थिवस्य) द्युलोक और पृथ्वीलोकके (मह: राय:) महान् आनंद1-ऐश्वर्य प्राप्त करानेके लिए (शक्तम्) अपनी शक्ति लगाओ । क्योंकि (देवेषु) देवोंमें (वां क्षत्रं महि) तुम्हारी शक्ति महान् है ।

ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते ।

अद्रुहा देवौ वर्धेते ।।

 

(ऋतेन) सत्यके द्वारा तुम (ऋतं) सत्यके ज्ञानको (सपन्त) प्राप्त करते हो । तुम (इषिरं दक्षम्) प्रेरक-शक्ति2के विवेकको (आशाते) धारण किए हुए हो । (देवौ) हे देवो ! (अद्रुहा वर्धेते) तुम दोनों बढ़ते हो और कभी हिंसित नहीं होते ।

वृष्टिद्यावा रीत्याषेषस्पती दानुमत्या: ।

बृहन्तं गर्तमाशाते ।।

 

(वृष्टि-द्यावा) द्युलोकको वर्षामें परिणत करते हुए, (रीति-आपा) प्रवाहशील गतिके विजेता (दानुमत्या: इषः पतीं) इस शक्तिपूर्ण प्रेरणाके स्वामी तुम (बृहन्तं गर्तम् आशाते) विशाल गृहको अधिकारमें कर लेते हो ।

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1.  विशाल सत्यचेतनाका वह आनंद या सुखद संपदा जो न केवल हमारी

    चेतनाके उच्चतर मानसिक स्तरोंमें अपितु हमारी भौतिक सत्तामें भी

    आविर्भू हैं ।

2.  सीधी-सरल प्रेरणा जिसे देव धारण किये हुए हैं । मनुष्य अज्ञानसे सत्य-

   की ओर अज्ञान ही के सहारे गति करता हुआ एक वक्रिल और डांवा-

   डोल गतिका अनुसरण करता है । उसका विवक असत्यके कारण विक्षुब्ध

   हो जाता है और वह अपने विकासमें निरन्तर ठोकरें लाता हुआ पाप

   और तापमें जा गिरता है । अपने अन्तरमें देवोंके संवर्धन द्वारा वह

   बिना ठोकर खाए, बिना दु:ख-पीड़ाके सत्यसे अधिक विशाल सत्यकी

   ओर सीधे और हर्षोल्लासके साथ गति करनेमें समर्थ होता है ।n

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